तत्त्व रूप से सृष्टि का कण-कण षिवस्वरूप होने से अक्षय आनन्द का सागर है; दसों दिषाओं में ब्रह्म सुख का सतत् प्रवाह है; दुख का अस्तित्व है ही नहीं, परंतु अज्ञानतावष जीवात्मा इस परम् सुख से वंचित है और सुख की खोज में विभिन्न स्थलों की राख छानते हुए अषान्त है। शान्ति, आनन्द और अमृत रस वास्तव में स्वयं की अन्तरात्मा में ही समाहित है। सुख एवं आनन्द उसी ईष्वर का ही अव्यक्त रूप है जो कि चर-अचर, दृष्य-अदृष्य तथा सभी के हृदय में अपनी अनन्त शक्ति के साथ अनादि काल से प्रविष्ट है तथा प्रत्येक क्षण कल्याण करने हेतु तत्पर है और कालान्तर में भी रहेगा। अतः ब्रह्म रस के लिए किसी स्थान विषेष की आवष्यकता नहीं; अपितु सर्वमय परम्सत्ता के सूत्र को समझकर मन, बुद्धि तथा चित्त से स्वीकारने की आवष्यकता है। गुरूतत्त्व (आत्मरूप) ही एकमात्र अक्षय आनन्द का धाम है। विषुद्ध तीर्थफल निजस्वरूपता की स्थिति में रमण करने से ही सम्भव है ना कि तत्त्व रहित होकर नाषवान मूर्तियों की औपचारिक पूजा आदि कृत्य से।