Anushtup

· Vani Prakashan
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152
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ज्ञान की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए आप जिस संज्ञान तक पहुँचते हैं, शब्दों की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए जिस गहन मौन तक, मेरा अकेलापन आपके अकेलेपन से जहाँ रू-ब-रू होता है, कविता वहीं एक चटाई-सी बिछाती है कि पदानुक्रम टूट जायें, भेद-भाव की सारी संरचनाएँ टूट जायें, एक धरातल पर आ बैठे दुनिया के सारे ध्रुवान्त-आपबीती और जगबीती, गरीब-अमीर, स्त्री-पुरुष, श्वेत-अश्वेत, दलित-गैरदलित, देहाती-शहराती, लोक और शास्त्र। कविता के केन्द्रीय औज़ार-रूपक और उत्प्रेक्षा भेदभाव की सारी संरचनाएँ तोड़ते हुए एक झप्पी-सी घटित करते हैं-मैक्रो-माइक्रो, घरेलू और दूरस्थ वस्तुजगत के बीच। सहकारिता के दर्शन में कविता के गहरे विश्वास का एक प्रमाण यह भी है कि जहाँ रूपक न भी फूटें, वहाँ नाटक से संवाद, कथाजगत से चरित्र और वृत्तान्त वह उसी हक़ से उठा लाती है, जिस हक़ से हम बचपन में पड़ोस के घर से जामन उठा लाते थे। जामन कहीं से आता है, दही कहीं जम जाता है। यह है बहनापा, जनतन्त्र का अधिक आत्मीय, मासूम चेहरा जो कविता का अपना चेहरा है। बहुकोणीय अगाधता ही कविता का सहज स्वभाव है। वह स्वभाव से ही अन्तर्मुखी है, कम बोलती है, और जो बोलती है, इशारों में, स्त्री की तरह। जैसे नये पुरुष को नयी स्त्री के योग्य बनना पड़ता है। नये पाठक को कविता का मर्म समझने का शील स्वयं में विकसित करना पड़ता है। कलाकृतियाँ उत्पाद हो सकती हैं पर उत्पाद होना उनका मूल मन्तव्य नहीं होता। कोलाहल, कुमति और कुत्सित अन्याय के क्रूर प्रबन्धनों से मुरझाई, थकी हुई, विशृंखल दुनिया में कुछ तो ऐसा हो जो यान्त्रिक उपयोगितावाद के खाँचे से दूर खड़ा होकर मुस्का देने की हिम्मत रखे, जैसे कि प्रेम, शास्त्रीय संगीत, रूपातीत चित्रकला और समकालीन कविता। कभी-कभी तो मुझे ऐसा भी जान पड़ता है कि परमाणु में जैसे प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन एक अभंग लय में नाचते हैं, कविता में भाव, विचार और मौन! राजनीति, धर्म या कानून तो हमें खूखार होने से बचा नहीं पाये, पर प्रेम और कविता बचा ले शायद--पूरे जीवन-जगत की विडम्बना एक कौंध में उजागर कर देने की कामना के बलबूते, एक स्फुरण, एक विचार, एक स्वप्न, एक चुनौती, जुनून, उछाल-सब एक साथ उजागर करता विरल शब्द-संयोजक और ऐसा महामौन है कविता जो प्यार या जीवन का मर्म समझ लेने के बाद ही सम्भव होता है। कविता यानी वह स्पेस जो यथार्थ को इस तरह बाँचे कि वह सपना लगने लगे, कविता यानी वह स्पेस जहाँ शब्द-शरीर भी सब झेल-भोग लेने के बाद धीरे-धीरे छोड़ दिया जाये और मात्र मौन का दुशाला ओढ़े चल दिया जाये अनन्त की तरफ़।

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About the author

अनामिका निबन्ध लिखती हैं, अखबारों और पत्रिकाओं में स्तम्भ लिखती हैं, कहानियाँ और उपन्यास रचती हैं, कविताओं और उपन्यासों का अनुवाद सम्पादन करती हैं, और अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन करती हैं। एक पब्लिक इंटेलेक्चुअल के रूप में व्याख्यान देने से लेकर स्त्रीवादी पब्लिक स्फियर में सक्रिय रहने तक वे और भी बहुत कुछ करती हैं। पर, सबसे पहले और सबसे बाद में, वे एक कवि हैं। 1961 के उत्तरार्द्ध में मुजफ़्फ़रपुर, बिहार में जन्मी और अंग्रेज़ी साहित्य से पीएच.डी. अनामिका राजभाषा परिषद् पुरस्कार (1987), भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (1995), साहित्यकार सम्मान (1997), गिरिजाकुमार माथुर सम्मान (1993), परम्परा सम्मान (2001) और साहित्य सेतु सम्मान (2004), केदार सम्मान (2008), शमशेर सम्मान (2014), मुक्तिबोध सम्मान (2015), वाणी फ़ाउंडेशन डिस्टिग्विश्ड ट्रांसलेटर अवार्ड (2017) से विभूषित हो चुकी हैं। प्रकाशित कृतियाँ : आलोचना : पोस्ट एलिएट पोएट्री : अ वॉएज फ्रॉम कफ्लिक्ट टु आइसोलेशन, डन क्रिटिसिज्म डाउन दि एजेज़, ट्रीटमेंट ऑव लव ऐंड डेथ इन पोस्ट वार अमेरिकन विमेन पोएट्स, ट्रांसलेटिंग रेशियल मेमरी। विमर्श : स्त्रीत्व का मानचित्र, मन माँजने की ज़रूरत, पानी जो पत्थर पीता है, स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष, त्रियाचरित्रं : उत्तरकाण्ड, स्वाधीनता का स्त्री-पक्ष। कविता : गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, समय के शहर में, अनुष्टुप, कविता में औरत, खुरदरी हथेलियाँ, दूब-धान, थेरी गाथा : टोकरी में दिगन्त, पानी को सब याद था। कहानी : प्रतिनायक। संस्मरण : एक ठो शहर था, एक थे शेक्सपियर, एक थे चार्ल्स डिकेंस। उपन्यास : अवान्तर कथा, दस द्वारे का पींजरा, तिनका तिनके पास, आईका साज़। अनुवाद : नागमंडल (गिरीश कार्नाड), रिल्के की कविताएँ, एफ्रो इंग्लिश पोएम्स, अटलांत के आर-पार (समकालीन अंग्रेजी कविता), कहती हैं औरतें (विश्व साहित्य की स्त्रीवादी कविताएँ), भाषिक पुनर्वास।



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