Badshah Salamt Hazir Hon...!

· Vani Prakashan
5.0
1 review
Ebook
320
Pages
Ratings and reviews aren’t verified  Learn More

About this ebook

“ज़िन्दगी कत्तई भी किसी मदारी से कम नहीं है। वह हमारे साथ तरह-तरह से फ़रेब करती नये-नये ढंग से हमारा शिकार करती है। हम उसके एक जाल से निकल जाते हैं तो वह तुरन्त दूसरा जाल फेंकती है। हम समझते हैं कि हम ही अकेले चालाक हैं; और वह है कि अपने से ज़्यादा क़ाबिल किसी और को नहीं मानती। वह हमारे सामने हर वक़्त माया का एक नया संसार रचती है। कभी बहलाती है, कभी फुसलाती है, कभी रुलाती है और कभी हँसाती है...! बचपन हो, जवानी हो या कि बुढ़ापा— वह हमारा पीछा नहीं छोड़ती। हम ज्यों-ज्यों उम्रदराज़ होते जाते हैं उसके खेल के नियम और सख़्त होते जाते हैं। कभी जवानी में लगता है कि हम सिकन्दर हो चले हैं और एक साँस में ही दुनिया फतह कर लेंगे। ऐसे में किसी जवान को अगर सारी दुनिया बूढ़ी मालूम पड़ती है और सारा बुढ़ापा जवानी का चाकर नज़र आने लगता है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं..! हालाँकि इसका उल्टा भी सत्य है। कई बार बुढ़ापे में खुद के चिर युवा होने का और एक पल में दुनिया जीत लेने का भी भ्रम हो जाता है। और जब कभी किसी को ऐसा महसूस होने लगे तो फिर ऐसे शख़्स को बूढ़ा कहना या उसे दुनिया फतह करने की यात्रा पर निकलने से पहले रोकना कत्तई ख़तरे से ख़ाली नहीं होता...! हमें लगता है कि यह सब कुछ हम कर रहे हैं; लेकिन सच यह है कि यह सब कुछ ज़िन्दगी हमसे फ़ितरतन करा रही होती है। हम ही ज़िन्दगी के फ़रेब में आते हैं; ज़िन्दगी हमारे फ़रेब में कभी नहीं आती। हमारा जीवन इन फ़रेबों की यात्रा भर है और कुछ भी नहीं...!”

—इसी उपन्यास से


★★★


ज़ाहिर तौर पर यह अफ़साना महज़ एक सिरफिरे नवाब की दास्तान दिखाई देता है; लेकिन अस्ल में यह अपने दामन में एक पूरे दौर की दास्तान समेटे हुए है। नवाब नकबुल्ला इस कहानी का सिर्फ़ एक किरदार भर नहीं; बल्कि अपने जैसे तमाम जुनूनी, बेहूदा और वहशी नवाबों का मुमताज़ नुमाइन्दा है चाहे वो किसी भी दौर में पैदा हुए हों या किसी भी मुल्क के हों...! सच पूछा जाय तो नवाब नकबुल्ला अपने जैसे असंख्य किरदारों का एक ऐसा कोलाज़ है जिसमें सत्ता की उन तमाम विद्रूपताओं और दमनकारी किरदारों की तस्वीरें उभरती हैं जो इन्सानी तहज़ीब पर अपने गहरे नक्श छोड़ती हैं। उसकी सनक, उसकी वहशियाना ख़्वाहिशें और बेहिसाब फ़ैसले उस तशवीश का इज़हार करते हैं; जो न सिर्फ़ उसके दौर को बल्कि आने वाले ज़माने तक को तबाही के साये में डाल देती है।


यह अफ़साना एक आईना है, जो दरअस्ल हमें यह दिखाता है कि हुकूमत की बागडोर अगर किसी नालायक़ और वहशी शख़्स के हाथों में आ जाये तो वह महज़ अपनी रिआया के लिए ही नहीं, बल्कि अपने वजूद के लिए भी जानलेवा साबित हो सकता है। नवाब के बहाने से यह अफ़साना यह सवाल भी उठाता है कि क्या हुकूमत सिर्फ़ वंश और ख़ून की बुनियाद पर तै होनी चाहिए या फिर सलाहियत और क़ाबिलियत इसकी असली कसौटी होनी चाहिए।


उपन्यास का सबसे दिलचस्प हिस्सा इसका तमाम उतार-चढ़ाव वाला त्रिकोणात्मक इश्क़ है। यों तो यह दास्तान नवाब नकबुल्ला, राजा रहम सिंह और ठग ज़ालिम सिंह के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन इसके मरकज़ में मछली मुहाल की एक हुस्न-ओ-जमाल की मल्लिका, तवाइफ़ हुस्ना बाई है। नवाब के हरम और मछली मुहाल की तवाइफ़ों की तफ़सीलात, अफ़साने को एक ख़ास तिलिस्माती दिलकशी से भर देती हैं। फिर इसके चरित्रों का क्या कहना...! नवाब नकबुल्ला समेत इस अफ़साने के सभी किरदारों का चरित्र-चित्रण इतनी बारीकी और फ़नकारी से किया गया है कि हर वाक़िया और मंज़र चलचित्र जैसा मालूम होता है; जो दिमाग़ और दिल पर गहरा असर छोड़ता हैI


कहना यों कि ‘बादशाह सलामत हाज़िर हो...!’ सिर्फ़ किसी जुनूनी नवाब की कहानी नहीं, बल्कि हर उस दौर का अक्स है जहाँ सत्ता की ग़लत ताबीरों और वहशत ने इन्सानी तहज़ीब को बरबादी की दहलीज़ पर ला खड़ा किया। यह अफ़साना न सिर्फ़ हमें गहरे सोचने पर मजबूर करता है, बल्कि एक ज़माने की सूरत-ओ-सीरत को भी बेपर्दा करता है।


Ratings and reviews

5.0
1 review
AVINASH KUMAR
May 28, 2025
x z
Did you find this helpful?

About the author

बालेन्दु द्विवेदी : सन् 01 दिसम्बर, 1975 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले के ब्रह्मपुर गाँव में जन्मे बालेन्दु द्विवेदी हिन्दी साहित्य के प्रखर और बहुआयामी रचनाकार हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त करने वाले बालेंदु वर्तमान में उत्तर प्रदेश सरकार की पीसीएस (अलाइड) सेवा में कार्यरत हैं। उनका साहित्यिक सफ़र ‘मदारीपुर जंक्शन’ (उपन्यास, 2017) से शुरू हुआ, जिसने उन्हें हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित पहचान दिलाई। यह उपन्यास पाठकों और समीक्षकों के बीच अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और इसे अमृतलाल नागर सर्जना सम्मान सहित कई पुरस्कार प्राप्त हुए। इस उपन्यास की नाटकीयता ने इसे देशभर में एक दर्जन से अधिक मंचीय प्रस्तुतियों और विश्वविद्यालयों में शोध का विषय बना दिया।

उनकी अन्य प्रमुख कृतियों में ‘मृत्युभोज’ (नाटक, 2019), ‘वाया फुरसतगंज’ (उपन्यास, 2021) और ‘परम्परा में जीवन की खोज’ (आलोचना) शामिल हैं। उन्होंने प्रिय कथाकार की अमर कहानियाँ : प्रेमचन्द और एक था मंटो जैसे महत्त्वपूर्ण संग्रहों का सम्पादन भी किया है।

बालेन्दु का लेखन भारतीय समाज, राजनीति और मानवीय जटिलताओं को गहराई से अभिव्यक्त करता है। उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता उनकी आंचलिकता और यथार्थवाद है, जो सही मायनों में समकालीन समाज का दर्पण है। विचारशील संवेदनाओं और सजीव भाषा-शैली के साथ उनका साहित्य हिन्दी को नयी ऊँचाइयों तक ले जाने में सक्षम है।


Rate this ebook

Tell us what you think.

Reading information

Smartphones and tablets
Install the Google Play Books app for Android and iPad/iPhone. It syncs automatically with your account and allows you to read online or offline wherever you are.
Laptops and computers
You can listen to audiobooks purchased on Google Play using your computer's web browser.
eReaders and other devices
To read on e-ink devices like Kobo eReaders, you'll need to download a file and transfer it to your device. Follow the detailed Help Center instructions to transfer the files to supported eReaders.