Batkahi

· Vani Prakashan
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'बतकही' प्रसिद्ध आलोचक डॉ. मैनेजर पाण्डेय से की गयी बातचीत की पुस्तक है। प्रचलित अर्थों में यह पुस्तक विभिन्न विषयों पर डॉ. पाण्डेय द्वारा दिये गये सत्रह साक्षात्कारों का संग्रह है; पर शैली के स्तर पर यह शुद्ध अन्तरंग बातचीत है जिसमें औपचारिकता नहीं, अन्तरंगता है। इसे स्पष्ट करते हुए डॉ. पाण्डेय ‘आमुख' में कहते हैं- 'बतकही' शब्द दो व्यक्तियों के बीच किसी भी विषय और व्यक्ति के बारे में बातचीत के दौरान सहजता, स्वाभाविकता, सहृदयता और समानता की ओर संकेत करता है। बतकही सार्थक तब होती है जब सवाल करने वाला व्यक्ति पूरी तैयारी के साथ बातचीत में भाग लेता है।" ज़ाहिर है, इस पुस्तक में बातचीत करने वाले लोग सहृदयता, सहजता, स्वाभाविकता तथा समानता के साथ लेखक से संवाद करते हैं और विविध प्रश्नों पर हुई बातचीत में अपनी अन्तरंग सहभागिता दिखाते हैं। इस स्तर पर देखें तो पूरी पुस्तक हमें अपनी प्रक्रिया में लिए चलती है और हम पाते हैं कि इसमें भागीदारी कर रहे हैं। पुस्तक में शामिल सत्रह साक्षात्कारों यानी बतकहियों में बहुत आत्मीयता और अनौपचारिकता के साथ डॉ. पाण्डेय ने अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर बातचीत की है जिनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास का तोड़ अभी तक नहीं आया, दलित स्त्री की पराधीनता तीन स्तरों पर है, मैं आलोचना को कवि और कविता से बड़ा नहीं मानता, यथार्थवादी रचनाशीलता की स्थिति अब भी बहुत अच्छी है, लेखक परम्परा से कुछ सीखते हुए नया सोचें, सम्पूर्ण अर्थ में भारतीय कवि हैं निराला शीर्षक साक्षात्कार शामिल हैं। ‘बतकही' में अनेक ऐसे विषयों पर बातचीत है जो आज के समय में प्रासंगिक हैं और हमें अपनी भूमिका की याद दिलाते हैं। आधुनिकता के प्रश्न हों या मुक्तिबोध की कविता पर विचार हो, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के कवि-कर्म को देखना हो या मार्केज़ के उपन्यास पर विचार करना हो-डॉ. पाण्डेय साहित्य की सामाजिकता और आलोचना के दायित्व के साथ-साथ हमारे नागरिक कर्तव्यों की याद भी दिलाते हैं। कह सकते हैं कि 'बतकही' पढ़ने योग्य पुस्तक तो है ही, आज के दिग्भ्रमित समय में दिशा देने वाली भी है। -ज्योतिष जोशी

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सुप्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय का जन्म 23 सितम्बर, 1941 को बिहार प्रान्त के वर्तमान गोपालगंज जनपद के गाँव ‘लोहटी’ में हुआ। उनकी आरम्भिक शिक्षा गाँव में तथा उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई, जहाँ से उन्होंने एम.ए. और पीएच. डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। पाण्डेय जी गत साढे़ तीन दशकों से हिन्दी आचोलना में सक्रिय हैं। उन्हें गम्भीर और विचारोत्तेजक आलोचनात्मक लेखन के लिए पूरे देश में जाना-पहचाना जाता है। उनकी अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं: शब्द और कर्म, साहित्य और इतिहास-दृष्टि, साहित्य के समाजशास्त्रा की भूमिका, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, अनभै साँचा, आलोचना की सामाजिकता, संकट के बावजूद (अनुवाद, चयन और सम्पादन), देश की बात (सखाराम गणेश देउस्कर की प्रसिद्ध बांग्ला पुस्तक ‘देशेर कथा’ के हिन्दी अनुवाद की लम्बी भूमिका के साथ प्रस्तुति), मुक्ति की पुकार (सम्पादन), सीवान की कविता (सम्पादन)। पाण्डेय जी के साक्षात्कारों के भी दो संग्रह प्रकाशित हैं: मेरे साक्षात्कार, मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ। आलोचनात्मक लेखन के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित, जिनमें प्रमुख हैं: हिन्दी अकादमी द्वारा दिल्ली का साहित्यकार सम्मान, राष्ट्रीय दिनकर सम्मान, रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी का गोकुल चन्द्र शुक्ल पुरस्कार और दक्षिण भारत प्रचार सभा का सुब्रह्मण्य भारती सम्मान। मैनेजर पाण्डेय ने हिन्दी में एक ओर ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ के माध्यम से साहित्य के बोध, विश्लेषण तथा मूल्यांकन की ऐतिहासिक दृष्टि का विकास किया है तो दूसरी ओर ‘साहित्य के समाजशास्त्रा’ के रूप में हिन्दी में साहित्य की समाजशास्त्राीय दृष्टि के विकास की राह बनाई है। अपने आलोचना-कर्म में वे परम्परा के विश्लेषणपरक पुनर्मूल्यांकन के भी पक्षधर रहे हैं। उन्होंने भक्त कवि सूरदास के साहित्य की समकालीन सन्दर्भों में व्याख्या कर भक्तियुगीन काव्य की प्रचलित धारणा से अलग एक सर्वथा नयी तर्काश्रित प्रासंगिकता सिद्ध की है। पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी में दलित साहित्य और स्त्राी-स्वतन्त्राता के समकालीन प्रश्नों पर जो बहसें हुई हैं, उनमें पाण्डेय जी की अग्रणी भूमिका को बार-बार रेखांकित किया गया है। उन्होंने सत्ता और संस्कृति के रिश्ते से जुड़े प्रश्नों पर भी लगातार विचार किया है। कहा जा सकता है कि उनकी उपस्थिति प्रतिबद्धता और सहृदयता के विलक्षण संयोग की उपस्थिति है। जीविका के लिए अध्यापन का मार्ग चुनने वाले मैनेजर पाण्डेय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा संस्थान के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफेसर रहे हैं। इसके पूर्व बरेली कॉलेज, बरेली और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे।

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