Dagh (Hindi)

· Manjul Publishing
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उर्दू शायरी के इतिहास में एक से बढ़कर एक शाइर हुए हैं, जिनकी शख़्सियत या जिनका कलाम किस परिचय का मुहताज नहीं है। उर्दू शाइरी में जिन शाइरों का नाम आज भी सम्मान के साथ लिया जाता है, उनमें 'दाग़ देहलवी' का अपना स्थान हमेरे तक़ी 'मीर' और उनके बाद 'मेमिन', 'ज़ौक', 'ग़ालिब' और इन्हीं के साथ 'दाग़' का ऐसा नाम है, जिस पर उर्दू अदब नाज़ कर सकता है, यह बात गलत नहीं'दाग़' की शायरी के बारे में यही कहा जा सकता है कि यदि उनकी शाइरी का हुस्न उनकी ज़बान और उनके अंदाज़े बयान में है। इश्क़ कि वारदातें उनका सबसे प्रिय विषय है। इस बात का प्रमाण उनके ये शे'र हैमौत का मुझको न खटका, शबे-हिज्रां होता।

मेरे दरवाज़े अगर आपका दरबां होता।।

ख़याले यार ये कहता है मुझसे ख़िलवत मेंतेरा रफ़ीक़ बता और कौन है, मैं हूँ।।'दाग़ देहलवी' एक उच्च कोटि के शाइर थे, जिनका कलाम उर्दू अदब के लिए किसी रौशनी मीनार से काम नहीं है। दिल्ली कि ख़ास ज़बान और अपने अशआर के चुटीलेपन के कारण 'दाग़' को भारतीय शाइरों कि पहली पंक्ति में गिना जाता है। सीमाब अकबराबादी, जोश मलिसयानी, डॉक्टर इक़बाल, आग़ा शाइर बेख़ुद देहलवी तथा एहसान मारहवी जैसे उस्ताद शाइर मूलतः 'दाग़' के ही शिष्य थे। उस्ताद 'दाग़' का एक मशहूर शे'र इस प्रकार है-

तुम्हारी बज़्म में देखा न हमने दाग़-सा कोईजो सौ आये, तो क्या आये, हज़ार आये, तो क्या आये।।।




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Acerca del autor

दाग़' का जन्म 25 मई, 1831 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता का नाम नवाब शम्सुद्दीन था। नवाब साहब के देहांत के बाद 'दाग़' की परवरिश लाल क़िले के शाही महल में हुई, जहां उन्हें ज़ौक़ जैसे उस्ताद की शगिर्दी का अवसर प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु सन 1905 में हैदराबाद में हुई।

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