Hindi Sahitya : Parampara Aur Prayog

· Vani Prakashan
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Über dieses E-Book

'हिन्दी साहित्य : परम्परा और प्रयोग' निशानदेही करती है परम्परा और वर्तमान की। अपभ्रंश की बोलियों का संसार नवोदित मानस का संसार था जो सामन्ती व्यवस्था में मौजूद क्लासिक भाषा से भी टक्कर ले रहा था। नामवर सिंह का साहित्य इसका साक्षी है। कह लें कि इसी आलोक में उनकी छायावाद पर किताब आयी, कविता के नये प्रतिमान के साथ-साथ कहानी : नयी कहानी पुस्तकें भी आयीं। किसी आलोचक को केन्द्र में रखकर इतिहास लिखने को इकतरफा माना जा सकता है लेकिन ऐसा तब जब साहित्य और समाज को एक ही रोशनी से देखा जाये। प्रो. कुमार अपनी इस किताब में नामवर के बहाने भी और कहें अतीत की पूरी परम्परा के द्वन्द्व से वर्तमान-साहित्य के रूपों (कहानी, कविता और अन्य) को देखते-परखते हैं। उनकी पारखी दृष्टि में अपभ्रंश के कवि भी हैं और वर्तमान का रचना-संसार भी। क्या हासिल और क्या अन-हासिल रह गया, यह किताब इसकी खोज और उसका विश्लेषण करती है। ख़ास बात यह कि यह खोजपूर्ण किताब आज़ादी के बाद की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं (ज्ञानोदय, सारिका, अब, कृति ओर, जनयुग, आलोचना, पहल, वसुधा, अक्सर, वागर्थ, परिकथा आदि) की यात्रा करती हुई सार्थक निष्कर्ष पर पहुँचती है।

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Autoren-Profil

अरुण कुमार 5 मार्च, 1953, सीतामढ़ी, बिहार में जन्म। राँची विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग में प्राध्यापक। पिछले दशकों की हिन्दी आलोचना में सुपरिचित हस्ताक्षर, समाचार-पत्रों में नियमित लेखन। साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार लिख रहे हैं। हिन्दी आलोचना में परम्परा और वर्तमान के समन्वय से एक नयी दिशा तय करने वाले आलोचक प्रो. कुमार इस किताब में अपभ्रंश से लेकर अब तक साहित्य और सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर पैनी नज़र डालते हैं।


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