श्री कृपाशंकर शर्मा ‘शूल’ द्वारा सतफेरा प्रथम भाग ‘राजाराम में सीताराम’ में सीता और राम के जीवन से सम्बन्धित उन पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है जिन पहलुओं की चर्चा हिन्दी साहित्य में देखने सुनने को नहीं मिलती। गुप्तचर द्वारा राजाराम के विषय में कहे गए रजक-वचन की जानकारी दी जाती है और राजाराम का हृदय राजधर्म पालन हेतु विराट रूप धारण करता है तथा माँ जानकी को गर्भावस्था में वन छोड़ने हेतु आदेश दे देता है। लक्ष्मण द्वारा जानकी को वन में छोड़ने के उपरान्त राम का हृदय हिलोरें लेने लगता है। पूर्व घटित अनेक घटनाएं ‘सीता के राम’ के स्मृति पटल पर उभरने लगती हैं। ‘जागा सिय संग का सतफेरा’ ‘राजाराम के चिदाकाश में सीताराम का हुआ सवेरा’ यहाँ से ‘सीता के राम’ का कथानक प्रारम्भ होता है और पश्चात्ताप व आत्मग्लानि स्वरूप उन्हें अपने आपसे राजा, महाराजा, राजाधिराज जैसे सम्बोधनों से कुण्ठा सी हो जाती है। कहै जनि कोई राजाधिराज। शीश धरत जा ताजहिं छूटो मम हिरदय सरताज। एवं ‘क्या सचमुच प्रणम्य हूँ मैं ?’ इन दो पदों में ‘सीता के राम’ के पश्चात्ताप का चरमोत्कर्ष परिलक्षित होता है। सीता के राम सीता की विरहाग्नि में जलने लगते हैं और उनके बचपन से लेकर वन-गमन एवं राम-रावण युद्ध तथा अयोध्या वापस आने तक के अनेक दृश्य एवं घटनाएं स्मृति पटल पर तैरती रहती हैं। उन्हें लगता है कि- ‘भलो हतो जासै वो वनवास’ ‘सीता के राम’ अपने मन को समझाने का बहुत प्रयास करते हैं लेकिन ‘न समुझत मन समझाए से’ तथा अन्य घटनाएं जैसे- ‘रहत कस होइहिं जनक दुलारि’... ‘सुनेउ जने मैथिलि दुई सुकुमार’ ‘लगत कस होइहिं दोउ सुकुमार।’ जैसे अनेक पद बहुत ही मार्मिक तथा हृदयस्पर्शी हैं। महर्षि वाल्मीकि अन्य ऋषियों-मुनियों के साथ अवध की धरोहर सौंपने हेतु अयोध्या प्रस्थान करते हैं। इन सबके आने की सूचना पर पूरे नगर की सजावट पुष्प, पताकों एवं दीपों से की जाती है किन्तु राम को निज अपराध बोध होता है। सीता के दरबार में प्रवेश करते ही राजाराम का हृदय राजधर्म पालन करने हेतु मचलने लगता है और सीता को पुनः अग्नि परीक्षा का आदेश सुना दिया जाता है। सीता इस अप्रत्याशित घटना से टूट जाती हैं और अपनी जननी माँ धरती से अपने अंग में समेटने हेतु प्रार्थना करती हैं। धरती माँ आंचल फैला देती हैं और सीता उसमें समाहित हो जाती हैं।