यह कहानी समाज में गहराते अन्याय, वर्ग-विभाजन और नैतिक पतन के उन पहलुओं को उजागर करती है, जो अक्सर अनदेखे रह जाते हैं। ‘आकाश’ यहां केवल आकाश नहीं, बल्कि वह चेतना है जो समय के संकेतों को पढ़ने की कोशिश करती है—और ‘संकेत’ हैं उन बदलावों के, जो भीतर से झकझोरते हैं।
मनोज दास की भाषा सरल है, पर प्रभाव गहरा—हर पंक्ति सामाजिक विडंबनाओं को रेखांकित करती है, और हर पात्र अपनी खामोशी में एक चीख छिपाए है। यह उपन्यास न केवल मनोरंजन करता है, बल्कि चिंतन, प्रश्न और संवेदना को जन्म देता है।
पुस्तक में ग्रामीण और शहरी परिवेश का सूक्ष्म चित्रण है, जहां पारंपरिक मूल्य आधुनिक स्वार्थों से टकराते हैं। यह टकराव केवल कथा का केंद्र नहीं, बल्कि समकालीन भारतीय समाज की गूंज है।
आकाश-संकेत उन पाठकों के लिए है जो साहित्य में केवल कहानी नहीं, समाज का दर्पण देखना चाहते हैं। जो जानते हैं कि उपन्यास केवल कल्पना नहीं, बदलाव की शुरुआत हो सकता है।
यह कृति एक सामाजिक दस्तावेज़ है—सहज, तीखा और प्रासंगिक—जो आज भी उतना ही मौलिक है, जितना कल था, और शायद कल भी रहेगा।