मैं न कोई इतिहासकार हूँ, न ही इतिहास मेरा विषय रहा है। प्रश्न हो सकता है कि तब अनर्थक काम करने का यह दुस्साहस क्यों? दरअसल यह मेरे हृदय की आवाज है जो 31 अक्टूबर 1984 ई. को श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या की खबर से मेरे कलेजे के तड़प से निकली थी। आत्मा मुझे धिक्कार रही थी कि यह समय राष्ट्र के लिए मर मिटने के लिए है। मुझे किसी आदर्श व्यक्तित्व की तलाश महसूस हुई। तत्कालीन राजनेताओं से निराशा हाथ लगी तो इतिहास में ढूँढने लगा। अपना निजा “श्रीमती विमला पुस्तकालय” में उपलब्ध तमाम महान् विभूतियों की जीवनी का अध्ययन व मनन करने के उपरांत नेताजी सुभाष बाबू को मैंने अपना अभीष्ट आदर्श व्यक्तित्व चुना। इसके पीछे का कारण शायद पारिवारक पृष्टभूमि, निज संस्कार एवं अपने पूज्य पिताजी के जीवन शैली का भी तकाजा रहा होगा।