संसार में हर व्यक्ति ‘बच्चे’ के रूप में ही जन्म लेता है और माँ की गोद में पलते-पलते ही ‘बचपन’ से शैशव और जवानी की गलियों को पार करके ‘पचपन’ तक पहुँचकर सबसे अधिक जिसे याद करता है, वह है उसका पीछे छूट गया ‘बचपन’ और उस बचपन को अपनी ममता के आँचल से बचानेवाली माँ का दुलार!
सारी दुनिया की दौलत कमाकर भी व्यक्ति पीछे कहीं बहुत दूर छूट गए अपने ‘बचपन’ और ‘माँ के ममता भरे आँचल’ को दोबारा प्राप्त नहीं कर पाता और तब इन दोनों को वह अपनी ‘यादों’ में ‘कल्पना के रथ’ पर बिठाकर साकार करता है।
यादों को कल्पनाओं में सजा-सँवारकर ‘अक्षर’ बनानेवाले कवि निश्चय ही संसार में बहुत कम होते हैं। हिंदी में महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘सरोज-स्मृति’ की रचना करके अपनी दिवंगत सुपुत्री सरोज की ‘स्मृति’ को अमृत कर दिया है, महाकवि जयशंकर प्रसाद ने ‘आँसू’ काव्य रचकर अपनी ‘स्मृति’ को अक्षर बना दिया है।
और अब, देवभूमि के शब्द-शिल्पी श्री ‘निशंक’ ने अपनी स्मृतियों में रचे-बसे अपने ‘बचपन’ के साथ ही ‘माँ की पाठशाला’ से मिले जीवन-मूल्य रूपी अमूल्य भाव-रत्नों को शब्दों के माध्यम से अमरत्व प्रदान किया है।