विषय भोग की इच्छा तथा शेष कामनाएं विष से भी अधिक घातक हैं जो मनुष्य इन विषय विकारों से ऊपर उठ जाता है वह साक्षात् श्रीविष्णु ही है । इसमें संदेह नहीं ।
विषयों को परास्त कर , अहंकार व ईर्ष्या से रहित होकर ; मोह, राग, द्वेष आदि शत्रुओंको जीतकर, एकत्व रुप यथार्थ योग साम्राज्यको पाकर जो मनुष्य पराविज्ञान को प्राप्त हो चुका है वही साक्षात् ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मज्ञ ब्रह्म नामक सबका बीज और सर्वेश्वर ही है क्योंकि सर्वेश्वर किसी चोले का या आवरण का नाम नहीं अपितु ब्रह्मभाव से भावित की संज्ञा है। जो स्वयं ही स्वयं से है अन्य से नहीं ऐसा ब्रह्मनिष्ठ ही मुक्त ही है।
ब्रह्मविद्या ही पराविद्या है शेष अपरविद्या। अतः चारों वर्ण के मनुष्यों को अपर विद्या में लिप्त नहीं होना चाहिए, न ही अपर विद्या के अधिकार के लिए व्यर्थ का विवाद करना चाहिए। इससे ब्रह्मभाव का कोई संबंध नहीं।
ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों अपर विद्या की द्वैतमयी आज्ञा मानने के कारण बार बार जन्म ग्रहण करते हैं अतः मुमुक्षुओं व वीतरागियों को या किसी को भी अमृतपद के लिए ही प्रयास करना चाहिए। जगत के गौण पदों या गौण कीर्तियों में कुछ भी नहीं रखा । जब तक ब्रह्मविद्यारूपिणी कान्ताका सुखानुभव नहीं होगा तब तक कोई भी जीवन्मुक्त नहीं माना जा सकता फिर चाहे वह चारों वर्णों में कोई भी क्यों न हो। पर आज के मनुष्यों का दुर्भाग्य है कि वे आजीवन मीठी मीठी संज्ञा को सुन सुनकर ही मर जाते हैं आगे बढ़ना ही नहीं चाहते।बस कुएं का मेंढक बना रहना चाहते हैं।
- शंकराचार्यांश ब्रह्मानंद अक्षयरुद्र अंशभूतशिव (राघौगढ़)