सभी ब्रह्माण्डों सबसे बड़ी उपलब्धि केवल गुरुकृपा है । इस विश्व में एकमात्र उसी का जीवन सफल होता है जिसे ईश्वर के विशेष अनुग्रह से परमगुरु की प्राप्ति हो जाती है । बिना गुरु के मनुष्य बंजर भूमि के समान होता है । जिसके पास नीरसता और दुख के सिवाय कुछ भी नहीं होता । परंतु गुरु यदि साधारण या अजितेन्द्रिय है तो उस गुरु से कोई भी लाभ नहीं होने वाला । अतः साधन चतुष्ट्य से संपन्न तथा अपरोक्ष ज्ञाननिष्ठ गुरु का ही वरण करें । और ऐसा न मिले तो महादेव या महादेव के कृपापात्र नंदीकेश्वर या सनत्कुमार जी को गुरु मानकर उपनिषदों तथा गीता का स्वाध्याय करें । और उनसे प्रत्यक्ष मंत्रदीक्षा लेने की कामना हो तो गुरुगीता का अनुष्ठान करें । अनेक साधकों ने गुरुगीता के अनुष्ठान से महादेव से भी दीक्षा ली है । अर्थात इस विश्व में सब कुछ संभव है पर साधारण गुरु से दीक्षित होकर जीवन नष्ट ही समझें । शिवपुराण व लिंगपुराण की भी यही आज्ञा है कि साधारण गुरु से कोई लाभ नहीं । जो स्वयं तैरना नहीं जानता वह दूसरे को पार नहीं लगा सकता । ऐसा महादेव ने गुरुगीता में कहा है । समस्त धर्म ग्रंथों में जो जो गुरु माहात्म्य है वह परमगुरु अर्थात तद्भावित ब्रह्मनिष्ठ की सेवा का है न कि भोगी, लोभी, क्रोधी, निन्दक, अशान्त और स्त्रीलम्पट का । अतः अक्षयरुद्र अंशभूतशिव मात्र यही कहता है कि इसी जन्म में उद्धार के लिए एकमात्र परम गुरु का सान्निध्य अनिवार्य है । उनकी कृपा से ही ब्रह्म से एकरूपता की परमसिद्धि प्राप्त होती है जिससे वह संसार के प्रपंच से मुक्त होकर सोऽहम् भावमय हो जाता है वह परात्पर ब्रह्म होकर जीवन्मुक्त हो जाता है । जो कि था भी ।