यह संघर्ष मनुष्य की मुक्ति का संघर्ष रहा, जिसमें मनुष्य किसी धर्म, जाति, वर्ण या देश का नहीं रह जाता । निराला जी स्वयं कहते हैं कि “समस्त विश्व के मनुष्य हमारी मनुष्यता के दायरे में आ जायें !” वे जिस प्रकार अपने काव्य में उस मनुष्य की तलाश करते हैं, कहानियों व उपन्यासों में भी उसी तरह खोजते दीखते हैं। साहित्य में अन्ध-परम्परा और प्राचीन रूढ़िवाद से निराला दुःखी थे। ‘उपन्यास - साहित्य और समाज' में वे लिखते हैं- " उपन्यास में वास्तविक जीवन का चित्रण होना चाहिए। जहाँ जीवन दागी होकर संजीवनी शक्ति से रहित हो जाता है, वहाँ उसे नयी प्रथा से सँवारकर या प्रहार द्वारा नष्ट करके औपन्यासिक नवीन चित्रण का समावेश अपरिहार्य है ।" निराला को कथा - साहित्य में कोरा आदर्शवाद नहीं पसन्द था। वे आदर्शवाद के साथ यथार्थवाद की तलाश में लगे रहते थे। उन्होंने साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को गूँथते हुए कहा-“राजनीति के मैदान में जिस प्रकार बड़ी-बड़ी लड़ाइयों के लिए सिर उठाना ज़रूरी होता है, उसी तरह साहित्य के मैदान में भी हस्तक्षेप ज़रूरी है ।"
- भूमिका से
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' -
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (21 फ़रवरी 1896-15 अक्टूबर 1961 ) का नाम मूलतः छायावाद से जोड़ा जाता है, किन्तु उनके कृतित्व और व्यक्तित्व ने समूची सदी के साहित्य परिदृश्य को प्रभावित किया है । बंगाल के महिषादल में उनका जन्म हुआ और अवध प्रदेश के बैसवाड़ा अंचल में उनके जीवन का अधिकांश समय बीता। उनके कृतित्व में इन दोनों साहित्य-संस्कृतियों के गहरे रंग उभरकर सामने आते हैं। एक ओर उन पर तुलसीदास का गहरा रंग है, तो दूसरी ओर रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द और रवीन्द्रनाथ ठाकुर का। वे वेदान्त दर्शन से गहरे तक प्रभावित थे और राष्ट्रीय चेतना और यथार्थवादी दृष्टि में उनका अगाध विश्वास था ।
प्रमुख कृतियाँ : राम की शक्ति-पूजा, तुलसीदास, सरोज स्मृति, कुकुरमुत्ता, अनामिका, अणिमा, नये पत्ते, बेला (काव्य); अप्सरा, निरुपमा, प्रभावती, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा (उपन्यास); चतुरी चमार, सुकुल की बीवी ( कहानी-संग्रह); रवीन्द्र कविता कानन, चाबुक, प्रबन्ध पराग (निबन्ध तथा आलोचना) ।