कोरोना संकटकाल में बनारस और इस शहर की उदास सड़कों की कहानियां, और उन कहानियों की सच्ची कहानी है 'बनारस लॉकडाउन'। अनगिनत होठों पर दबी पीड़ा, आंखों में इनसान के प्रति इनसानियत, सहानुभूति और याचना, जाने-अनजाने चेहरे, चेहरों के बीच चेहरे और उन चेहरों पर खौफ की गाढ़ी रेखाएं मुद्दत तक याद रहेंगी। कलेजे में समाई सुनी-अनसुनी बातें, दर्द और सिसकियां, करुणा-पीड़ा, प्राणों का चीत्कर, आहों-कराहों के बीच गढ़ा गया है 'बनारस लॉकडाउन'।
खौफ, सन्नाटा, वीरानी और उदासी के बीच जिंदगी को नई जिंदगी देने और अंधेरे से बाहर निकालने की पुकार, हिम्मत, हौसला और दिलेरी से संकट का मुकाबला करने को संजीवनी देगा, नए जमाने के संकटकाल का यह दस्तावेज। यह सिर्फ बनारस का ऐतिहासिक दस्तावेज भर नहीं, इसमें भय- भूख-लाचारी, सच और फरेब की पड़ताल भी है।
लॉकडाउन में हमने बनारस को जैसा देखा, जैसा सुना और जैसा अनुभव किया, बिना बनावट, बिना आडंबर के वैसा रच दिया। 'बनारस लॉकडाउन' मेरे अपनों की कहानी है, मेरे शहर और गांव की दर्दनाक जिंदगी की कहानियां, पर केवल इतना ही श्रेय मुझे है कि इन्हें मैंने लिखी हैं-बस।
बाकी पाठकों पर छोड़ता हूं।
"विजय विनीत"