मेरे दरवाज़े अगर आपका दरबां होता।।
ख़याले यार ये कहता है मुझसे ख़िलवत मेंतेरा रफ़ीक़ बता और कौन है, मैं हूँ।।'दाग़ देहलवी' एक उच्च कोटि के शाइर थे, जिनका कलाम उर्दू अदब के लिए किसी रौशनी मीनार से काम नहीं है। दिल्ली कि ख़ास ज़बान और अपने अशआर के चुटीलेपन के कारण 'दाग़' को भारतीय शाइरों कि पहली पंक्ति में गिना जाता है। सीमाब अकबराबादी, जोश मलिसयानी, डॉक्टर इक़बाल, आग़ा शाइर बेख़ुद देहलवी तथा एहसान मारहवी जैसे उस्ताद शाइर मूलतः 'दाग़' के ही शिष्य थे। उस्ताद 'दाग़' का एक मशहूर शे'र इस प्रकार है-
तुम्हारी बज़्म में देखा न हमने दाग़-सा कोईजो सौ आये, तो क्या आये, हज़ार आये, तो क्या आये।।।
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दाग़' का जन्म 25 मई, 1831 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता का नाम नवाब शम्सुद्दीन था। नवाब साहब के देहांत के बाद 'दाग़' की परवरिश लाल क़िले के शाही महल में हुई, जहां उन्हें ज़ौक़ जैसे उस्ताद की शगिर्दी का अवसर प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु सन 1905 में हैदराबाद में हुई।