'ज़ौक़' साहब ने क्या ख़ूब लिखा
" हम जानते थे कि इल्म से कुछ जानेंगे ,
जाना तो ये जाना कि न जाना कुछ भी "
इस पुस्तक की उपलब्धि वो स्वरचित नज़्में हैं जिनकी मधुर, मृदुल काव्य-गंगा , निष्ठा और प्रेम की पराकाष्ठा को रेखांकित करती हैं । वो कविताएँ हैं जो अतीत के अनुभव से वर्तमान को परखने का प्रयास करती हैं ।
ख़ुद को तलाशते हुए, तराशते हुए जो भी मिलता गया वही लफ़्ज़ों में ढलता गया ।
" ख़ुद से मुलाक़ात का ख़ुमार अभी बाकी है यहाँ,
एक अरसे बाद, इन नज़ारों में चमक आयी है "
माँ सरस्वती के चरण वंदन से पोषित मेरी यह अभिव्यक्ति , मेरी कल्पना और यथार्थ का संगम, यह 'बारिश ' पन्नों पर उतर कर किसी दिल को भिगो दे तो मेरा प्रयास सफल है।
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