तेंडुलकर द्वारा लिखित यह नाटक मन को ही नहीं आत्मा को भी झकझोर देता है। तेंडुलकर किसी भी विषय की गहराई में इतना डूबकर लिखते हैं कि दर्शक मौन हो जाता है। यह कहानी बेबी या उसके भाई राघव की नहीं वरन् समाज में बेसहारा, लाचार और शोषितों की कहानी है। जो अपना सर्वस्व लुटाकर भी गाली, उपेक्षा और तिरस्कार के हकदार होते हैं और इस त्रासदी को वो समाज की क्रूरता नहीं वरन् अपने भाग्य का दोष मानते हैं और यह भाग्य मनुष्य को उस बिन्दु पर ले आता है जहाँ मनुष्य स्वआलोचक, स्वनिन्दक बन जाता है और पहले से अधिक झुकने के लिए तैयार हो जाता है