कवि ने आज की सबसे जटिल समस्या यानि आतंकवाद को अपना विषय बनाया है और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का पूर्ण रूपेण परिचय दिया है। हम सभी जानते हैं कि आतंकवाद के विशालकाय अजगर ने अपनी कंुडली में विश्व के लगभग सभी देशों को जकड़ लिया है। कितने मासूम बच्चे, निर्दोष स्त्रियाँ और मेहनतकश इंसान इस अजगर के द्वारा निगले जा चुके हैं। जो लोग प्रातःकाल उठकर अपने कारोबार की तलाश में निकल कर घरों से बाहर जाते हैं, उनमें से कितने ही गोलियों से छलनी कर दिये जाते हैं। मैंने एक बार अपनी एक ग़ज़ल का ये शेर पढ़ा था- ‘‘इसकी जानिब रुख ना कर सैयाद अपने तीर का ये परिन्दा उड़ रहा है, चोंच में तिनका लिये।’’ जो लोग अपना घर बनाने में व्यस्त हैं वो भी आतंकवाद का शिकार हो रहे हैं। कवि संजीव ने अपनी गद्य रचना में इसी दर्द को पिरोया है। वास्तव में आतंकवाद का कोई मजहब, जाति या सम्प्रदाय नहीं होता और एक आतंकवादी पूरी मानवता को कलंकित करता है। मेरा ये शेर देखिये- ‘‘दूर तक शहर की सड़कों पे बिछी हैं लाशें, सारा माहौल मुझे खून से तर लगता है।’’ कवि ने अपनी गद्य पुस्तक को कविता का रूप शायद इसलिये नहीं देना चाहा कि वे अपने विचारों को काव्य-छन्द की बंदिश में नहीं रखना चाहते थे, तभी तो वे गद्य की ओर आये और एक प्रभावशाली पुस्तक अपने पाठकों के हाथों तक पहुँचा दी। कवि संजीव ने आतंकवाद की समस्या पर रोशनी डालते हुए उसके कारणों और परिणामों पर बाकायदा बहस की है। धर्म को इंसानियत का पैगाम कहा है। राष्ट्रवाद के क्षेत्र को विश्ववाद तक फैलाया है। यानि विश्व बन्धुत्व के सिद्धान्त पर बल दिया है।