"ईशा पूर्व छठी शताब्दी का मानव इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। क्योंकि इसी काल में एक असाधारण आध्यात्मिक लहर पूरे विश्व के अधिकांश भागों में व्यापक रूप से फैली थी। जब ईरान के अरस्तु तथा चीन में कनफ्यूसियस ने अपने धार्मिक विचारों से मानव समाज को प्रभावित कर रहें थे, तत्समय में जम्बूदीप भाग में शाक्यमुनिबुद्ध विज्ञान आधारित धार्मिक क्रान्ति के प्रणेता बने। जब जनता पाखण्डपूर्ण, अन्धविशवासी विचारों, आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों-हिसंक यज्ञादि अनुष्ठान तथा असमानतपूर्ण वर्गव्यवस्था से क्षुद्ध तथा त्रस्त थी। उसी समय शाक्यमुनिबुद्ध ने अपने जीवन के 45 वर्षा तक पैदल चारिका करते हुए प्रज्ञा, करूणा, अहिंसा, मैत्री, शान्ति, उपेक्षा, मुदिता, त्याग, समाधि, समता तथा विश्वबन्धुता का धम्मोपदेश देकर जन-जन को जागरूक किया। शाक्यमुनिबुद्ध अपने जीवन- काल में ही पूज्यनीय तथा वन्दनीय हो गये थे। उनके महापरिनिर्वाण के पश्चात उनको गौरव प्रदान करते हुए तत्कालीन गणराज्यों के राजाओं ने उनके अस्थि- अवशेष को प्राप्त करके उस पर स्तूप की स्थापना करके पूजा-वन्दना किया था। बौद्धयुग को अमर करने के लिए उनके अनुयायियों ने अनेक प्रतीको को स्थापित किया। वे अपने शास्ता के आहार-विहार, विचरण-चिन्तन, आचार-व्यवहार तथा धम्मोपदेशों को अक्षुण्य बनाने के लिए जन सामान्य हेतु, स्तूपो, स्तम्मो, गुहालेखो, शिलालेखो तथा अन्य प्रतीको को स्थापित किया।इस पुस्तक में बुद्ध के प्रतीकों जैसे- स्तूप, स्तम्भ, गुफा, पशु, धम्मचक्र, स्वस्तिक चिन्ह, बोधिवृक्ष बुद्धपाद आदि का वर्णन चित्रोसहित सरल व सुग्राहय भाषा में किया गया है। पुस्तक लेखन में अनेक विद्वानो, ग्रन्थकारों द्वारा रचित पुस्तको का अध्ययन करके महत्वपूर्ण अंशो को समाहित किया गया है।"